प्रोफेसर अक्षय की जीवन की कहानी
प्रोफेसर अक्षय की जीवन की कहानी
दीपक प्रोफेसर अक्षय के साथ व्यवसाय प्रबंधन
कोर्स का शोधपत्र लिख रहा था. उस का पीएच.डी. करने का विचार था. भारत से 15 महीने
पहले उच्च शिक्षा के लिए वह मांट्रियल आया था. उस ने मांट्रियल में मेहनत तो बहुत
की थी, परंतु परीक्षाओं में अधिक सफलता नहीं मिली.
मांट्रियल की भीषण सर्दी, भिन्न संस्कृति और रहनसहन का ढंग, मातापिता पर
अत्यधिक आर्थिक दबाव का एहसास, इन सब कारणों से दीपक यहां
अधिक जम नहीं पाया था. वैसे उसे असफल भी नहीं कहा जा सकता, परंतु
पीएच.डी. में आर्थिक सहायता के साथ प्रवेश पाने के लिए उस के व्यवसाय प्रबंधन की
परीक्षा के परिणाम कुछ कम उतरते थे.
दीपक ने प्रोफेसर अक्षय से पीएच.डी. के लिए
प्रवेश पाने और आर्थिक मदद के लिए जब कहा तो उन्होंने उसे कुछ आशा नहीं बंधाई. वे
अपने विश्वविद्यालय और बाकी विश्वविद्यालयों के बारे में काफी जानकारी रखते थे. दीपक
के पास व्यवसाय प्रबंधन कोर्स समाप्त कर के भारत लौटने के सिवा और कोई चारा भी
नहीं था.
दीपक प्रोफेसर अक्षय से जब भी उन के विभाग में
मिलता, वे उस को मुश्किल से आधे घंटे का समय ही दे पाते थे, क्योंकि वे काफी व्यस्त रहते थे. दीपक को उन को बारबार परेशान करना अच्छा
भी नहीं लगता था. कभीकभी सोचता कि कहीं प्रोफेसर यह न सोच लें कि वह उन के भारतीय
होने का अनुचित फायदा उठा रहा है.
एक बार दीपक ने हिम्मत कर के उन से कह ही दिया, ‘‘साहब, मुझे किसी भी दिन 2 घंटे का समय दे दीजिए.
फिर उस के बाद मैं आप को परेशान नहीं करूंगा.’’
‘‘तुम मुझे परेशान थोड़े ही करते हो. यहां तो
विभाग में 2 घंटे का एक बार में समय निकालना कठिन है,’’
उन्होंने अपनी डायरी देख कर कहा, ‘‘परंतु ऐसा करो, इस इतवार को दोपहर खाने के समय मेरे घर आ जाओ. फिर जितना समय चाहो,
मैं तुम्हें दे पाऊंगा.’’
‘‘मेरा यह मतलब नहीं था. आप क्यों परेशान
होते हैं,’’ दीपक को प्रोफेसर अक्षय से यह आशा नहीं थी कि वे
उसे अपने निवास स्थान पर आने के लिए कहेंगे. अगले इतवार को 12 बजे पहुंचने के लिए
प्रोफेसर अक्षय ने उस से कह दिया था.
प्रोफेसर अक्षय का फ्लैट विश्व- विद्यालय के उन
के विभाग से मुश्किल से एक फर्लांग की दूरी पर ही था. उन्होंने पिछले साल ही उसे
खरीदा था. पिछले 22 सालों में उन के देखतेदेखते मांट्रियल शहर कितना बदल गया था, विभाग में व्याख्याता के रूप में आए थे और अब कई वर्षों से प्राध्यापक हो
गए थे. उन के विभाग में उन की बहुत साख थी.
सबकुछ बदल गया था, पर प्रोफेसर अक्षय की जिंदगी वैसी की वैसी ही स्थिर थी. अकेले आए थे शहर
में और 3 साल पहले उन की पत्नी उन्हें अकेला छोड़ गई थी. वह कैंसर की चपेट में आ
गई थी. पत्नी की मृत्यु के पश्चात अकेले बड़े घर में रहना उन्हें बहुत खलता था. घर
की मालकिन ही जब चली गई, तब क्या करते उस घर को रख कर.
18 साल से ऊपर बिताए थे उन्होंने उस घर में
अपनी पत्नी के साथ. सुखदुख के क्षण अकसर याद आते थे उन को. घर में किसी चीज की कभी
कोई कमी नहीं रही, पर उस घर ने कभी किसी बच्चे की किलकारी
नहीं सुनी. इस का पतिपत्नी को काफी दुख रहा. अपनी संतान को सीने से लगाने में जो
आनंद आता है, उस आनंद से सदा ही दोनों वंचित रहे.
बीवी के देहांत के बाद 1 साल तक तो प्रोफेसर अक्षय
उस घर में ही रहे. पर उस के बाद उन्होंने घर बेच दिया और साथ में ही कुछ गैरजरूरी
सामान भी. आनेजाने की सुविधा का खयाल कर उन्होंने अपना फ्लैट विभाग के पास ही खरीद
लिया. अब तो उन के जीवन में विभाग का काम और शोध ही रह गया था. भारत में भाईबहन थे,
पर वे अपनी समस्याओं में ही इतने उलझे हुए थे कि उन के बारे में
सोचने की किस को फुरसत थी. हां, बहनें रक्षाबंधन और भैयादूज
का टीका जब भेजती थीं तो एक पृष्ठ का पत्र लिख देती थीं.
प्रोफेसर अक्षय ने दीपक के आने के उपलक्ष्य में
सोचा कि उसे भारतीय खाना बना कर खिलाया जाए. वे खुद तो दोपहर और शाम का खाना
विश्वविद्यालय की कैंटीन में ही खा लेते थे.
शनिवार को प्रोफेसर भारतीय गल्ले की दुकान से
कुछ मसाले और सब्जियां ले कर आए. पत्नी की बीमारी के समय तो वे अकसर खाना बनाया
करते थे, पर अब उन का मन ही नहीं करता था अपने लिए कुछ भी झंझट करने
को. बस, जिए जा रहे थे, केवल इसलिए कि
जीवनज्योति अभी बुझी नहीं थी. उन्होंने एक तरकारी और दाल बनाई थी. कुलचे भी खरीदे
थे. उन्हें तो बस, गरम ही करना था. चावल तो सोचा कि दीपक के
आने पर ही बनाएंगे.
दीपक ने जब उन के फ्लैट की घंटी बजाई तो 12 बज
कर कुछ सेकंड ही हुए थे. प्रोफेसर अक्षय को बड़ा अच्छा लगा, यह सोच कर कि दीपक समय का कितना पाबंद है. दीपक थोड़ा हिचकिचा रहा था.
प्रोफेसर अक्षय ने कहा, ‘‘यह विभाग का मेरा दफ्तर नहीं, घर है. यहां तुम
मेरे मेहमान हो, विद्यार्थी नहीं. इस को अपना ही घर समझो.’’
दीपक अपनी तरफ से कितनी भी कोशिश करता, पर गुरु और शिष्य का रिश्ता कैसे बदल सकता था. वह प्रोफेसर के साथ रसोई
में आ गया. प्रोफेसर ने चावल बनने के लिए रख दिए.
‘‘आप इस फ्लैट में अकेले रहते हैं?’’ दीपक ने पूछा.
‘‘हां, मेरी पत्नी का
कुछ वर्ष पहले देहांत हो गया,’’ उन्होंने धीमे से कहा.
दीपक रसोई में खाने की मेज के साथ रखी कुरसी पर
बैठ गया. दोनों ही चुप थे. प्रोफेसर अक्षय ने पूछा, ‘‘जब तक चावल
तैयार होंगे, तब तक कुछ पिओगे? क्या
लोगे?’’
‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं
लूंगा. हां, अगर हो तो कोई जूस दे दीजिएगा.’’
प्रोफेसर ने रेफ्रिजरेटर से संतरे के रस से भरी
एक बोतल और एक बीयर की बोतल निकाली. जूस गिलास में भर कर दीपक को दे दिया और बीयर
खुद पीने लगे. कुछ देर बाद चावल तैयार हो गए. उन्होंने खाना खाया. कौफी बना कर वे
बैठक में आ गए. अब काम करने का समय था.
दीपक अपना बैग उठा लाया. उस ने 89 पृष्ठों की
रिपोर्ट लिखी थी. प्रोफेसर अक्षय रिपोर्ट का कुछ भाग तो पहले ही देख चुके थे, उस में दीपक ने जो संशोधन किए थे, वे देखे. दीपक उन
से अनेक प्रश्न करता जा रहा था. प्रोफेसर जो भी उत्तर दे रहे थे, दीपक उन को लिखता जा रहा था.
दीपक की रिपोर्ट का जब आखिरी पृष्ठ आ पहुंचा तो
उस समय शाम के 5 बज चुके थे. आखिरी पृष्ठ पर दीपक ने अपनी रिपोर्ट में प्रयोग में
लाए संदर्भ लिख रखे थे. प्रोफेसर को लगा कि दीपक ने कुछ संदर्भ छोड़ रखे हैं. वे
अपने अध्ययनकक्ष में उन संदर्भों को अपनी किताबों में ढूंढ़ने के लिए गए.
प्रोफेसर को गए हुए 15 मिनट से भी अधिक समय हो
गया था. दीपक ने सोचा शायद वे भूल गए हैं कि दीपक घर में आया हुआ है. वह
अध्ययनकक्ष में आ गया. वहां किताबें ही किताबें थीं. एक कंप्यूटर भी रखा था.
अध्ययनकक्ष की तुलना में प्रोफेसर के विभाग का दफ्तर कहीं छोटा पड़ता था.
प्रोफेसर ने एक निगाह से दीपक को देखा, फिर अपनी खोज में लग गए. दीवार पर प्रोफेसर की डिगरियों के प्रमाणपत्र
फ्रेम में लगे थे. प्रोफेसर अक्षय ने कनाडा से पीएच.डी. की थी. भारत से उन्होंने
एम.एससी. (कानपुर से) की थी.
‘‘साहब, आप ने एम.एससी.
कानपुर से की थी? मेरे नानाजी वहीं पर विभागाध्यक्ष थे,’’ दीपक ने पूछा.
प्रोफेसर 3-4 किताबें ले कर बैठक में आ गए.
‘‘क्या नाम था तुम्हारे नानाजी का?’’
‘‘बलराम,’’ दीपक ने
कहा.
‘‘उन को तो मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूं.
1 साल मैं ने वहां पढ़ाया भी था.’’
‘‘तब तो शायद आप ने मेरी माताजी को भी देखा
होगा,’’ दीपक ने पूछा.
‘‘शायद देखा होगा एकाध बार,’’ प्रोफेसर ने बात पलटते हुए कहा, ‘‘देखो, तुम ये पुस्तकें ले जाओ और देखो कि इन में तुम्हारे मतलब का कुछ है कि
नहीं.’’
दीपक कुछ मिनट और बैठा रहा. 6 बजने को आ रहे
थे. लगभग 6 घंटे से वह प्रोफेसर के फ्लैट में बैठा था. पर इस दौरान उस ने लगभग 1
महीने का काम निबटा लिया था. प्रोफेसर का दिल से धन्यवाद कर उस ने विदा ली.
दीपक के जाने के बाद प्रोफेसर को बरसों पुरानी
भूलीबिसरी बातें याद आने लगीं. वे दीपक के नाना को अच्छी तरह जानते थे. उन्हीं के
विभाग में एम.एससी. के पश्चात वे व्याख्याता के पद पर काम करने लगे थे. उन्हें मुंबई
में द्वितीय श्रेणी में प्रवेश नहीं मिल पाया था. इसलिए वे कानपुर पढ़ने आ गए थे.
उस समय कानपुर में ही उन के चाचाजी रह रहे थे. 1 साल बाद चाचाजी भी कानपुर छोड़ कर
चले गए पर उन्हें कानपुर इतना भा गया कि एम.एससी. भी वहीं से कर ली. उन की इच्छा
थी कि किसी भी तरह से विदेश उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाएं. एम.एससी. में
भी उन का परीक्षा परिणाम बहुत अच्छा नहीं था, जिस के बूते पर उन को आर्थिक
सहायता मिल पाती. फिर सोचा, एकदो साल तक भारत में अगर पढ़ाने
का अनुभव प्राप्त कर लें तो शायद विदेश में आर्थिक सहायता मिल सकेगी.
उन्हीं दिनों कालेज के एक व्याख्याता को विदेश
में पढ़ने के लिए मौका मिला था, जिस के कारण अक्षय को अस्थायी
रूप से कालेज में ही नौकरी मिल गई. वे पैसे जोड़ने की भी कोशिश कर रहे थे. विदेश
जाने के लिए मातापिता की तरफ से कम से कम पैसा मांगने का उन का ध्येय था.
विभागाध्यक्ष बलराम भी उन से काफी प्रसन्न थे. वे उन के भविष्य को संवारने की पूरी
कोशिश कर रहे थे. एक दिन बलराम ने अक्षय को अपने घर शाम की चाय पर बुलाया.
दीपक की मां सीमा से अक्षय की मुलाकात उसी दिन
शाम को हुई थी. सीमा उन दिनों बी.ए. कर रही थी. देखने में बहुत ही साधारण थी. बलराम
सीमा की शादी की चिंता में थे. सीमा विभागाध्यक्ष की बेटी थी, इसलिए अक्षय अपनी ओर से उस में पूरी दिलचस्पी ले रहा था. वह बेचारी तो चुप
थी, पर अपनी ओर से ही अक्षय प्रश्न किए जा रहा था.
कुछ समय पश्चात सीमा और उस की मां उठ कर चली
गईं. बलराम ने तब अक्षय से अपने मन की इच्छा जाहिर की. वे सीमा का हाथ अक्षय के
हाथ में थमाने की सोच रहे थे. उन्होंने कहा था कि अगर अक्षय चाहे तो वे उस के
मातापिता से बात करने के लिए मुंबई जाने को तैयार थे.
सुन कर अक्षय ने बस यही कहा, ‘आप के घर नाता जोड़ कर मैं अपने जीवन को धन्य समझूंगा. पिताजी और माताजी
की यही जिद है कि जब तक मेरी छोटी बहन के हाथ पीले नहीं कर देंगे, तब तक मेरी शादी की सोचेंगे भी नहीं,’ उस ने बात को
टालने के लिए कहा, ‘वैसे मेरी हार्दिक इच्छा है कि विदेश जा
कर ऊंची शिक्षा प्राप्त करूं, पर आप तो जानते ही हैं कि मेरे
एम.एससी. में इतने अच्छे अंक तो आए नहीं कि आर्थिक सहायता मिल जाए.’
‘तुम ने कहा क्यों नहीं. मेरा एक जिगरी दोस्त
कनाडा में प्रोफेसर है. अगर मैं उस को लिख दूं तो वह मेरी बात टालेगा नहीं,’ बलराम ने कहा.
‘आप मुझे सीमाजी का फोटो दे दीजिए, मातापिता को भेज दूंगा. उन से मुझे अनुमति तो लेनी ही होगी. पर वे कभी भी
न नहीं करेंगे,’ अक्षय ने कहा.
बलराम खुशीखुशी घर के अंदर गए. लगता था, जैसे वहां खुशी की लहर दौड़ गई थी. कुछ ही देर में वे अपनी पत्नी के साथ सीमा
का फोटो ले कर आ गए. सीमा तो लाजवश कमरे में नहीं आई. उस की मां ने एक डब्बे में
कुछ मिठाई अक्षय के लिए रख दी. पतिपत्नी अत्यंत स्नेह भरी नजरों से अक्षय को देख
रहे थे.
अपने कमरे में पहुंचते ही अक्षय ने कनाडा के उस
विश्वविद्यालय को प्रवेशपत्र और आर्थिक सहायता के लिए फार्म भेजने के लिए लिखा. मुंबई
जाने से पहले वह एक बार और सीमा के घर गया. कुछ समय के लिए उन लोगों ने अक्षय और सीमा
को कमरे में अकेला छोड़ दिया था, परंतु दोनों ही शरमाते रहे.
अक्षय जब मुंबई से वापस आया तो बलराम ने उसे
विभाग में पहुंचते ही अपने कमरे में बुलाया. अक्षय ने उन्हें बताया कि मातापिता
दोनों ही राजी थे, इस रिश्ते के लिए. परंतु छोटी बहन की शादी
से पहले इस बारे में कुछ भी जिक्र नहीं करना चाहते थे.
अक्षय के मातापिता की रजामंदी के बाद तो अक्षय
का सीमा के घर आनाजाना और भी बढ़ गया. उस ने जब एक दिन सीमा से सिनेमा चलने के लिए
कहा तो वह टाल गई. इन्हीं दिनों कनाडा से फार्म आ गया, जो उस ने तुरंत भर कर भेज दिया. बलराम ने अपने दोस्त को कनाडा पत्र लिखा और
अक्षय की अत्यधिक तारीफ और सिफारिश की.
3 महीने प्रतीक्षा करने के पश्चात वह पत्र कनाडा
से आया, जिस की अक्षय कल्पना किया करता था. उस को पीएच.डी.
में प्रवेश और समुचित आर्थिक सहायता मिल गई थी. वह बलराम का आभारी था. उन की
सिफारिश के बिना उस को यह आर्थिक सहायता कभी न मिल पाती.
अक्षय की छोटी बहन का रिश्ता लखनऊ में हो गया
था. शादी 5 महीने बाद तय हुई. अक्षय ने सीमा को समझाया कि बस 1 साल की ही तो बात
है. अगले साल वह शादी करने भारत आएगा और उस को दुलहन बना कर ले जाएगा.
कुछ ही महीने में अक्षय कनाडा आ गया. यहां उसे
वह विश्वविद्यालय ज्यादा अच्छा न लगा. इधरउधर दौड़धूप कर के उसे कनाडा में ही
दूसरे विश्वविद्यालय में प्रवेश व आर्थिक सहायता मिल गई.
सीमा के 2-3 पत्र आए थे, पर अक्षय व्यस्तता के कारण उत्तर भी न दे पाया. जब पिताजी का पत्र आया तो सीमा
का चेहरा उस की आंखों के सामने नाचने लगा. पिताजी ने लिखा था कि बलराम मुंबई किसी
काम से आए थे तो उन से भी मिलने आ गए. पिताजी को समझ में नहीं आया कि उन की कौन सी
बेटी की शादी लखनऊ में तय हुई थी.
उन्होंने लिखा था कि अपनी शादी का जिक्र करने
के लिए उसे इतना शरमाने की क्या आवश्यकता थी.
अक्षय ने पिताजी को लिख भेजा कि मैं सीमा से
शादी करने का कभी इच्छुक नहीं था. आप बलराम को साफसाफ लिख दें कि यह रिश्ता आप को
बिलकुल भी मंजूर नहीं है. उन के यहां के किसी को भी अमेरिका में मुझ से
पत्रव्यवहार करने की कोई आवश्यकता नहीं.
अक्षय के पिताजी ने वही किया जो उन के पुत्र ने
लिखा था. वे अपने बेटे की चाल समझ गए थे. वे बेचारे करते भी क्या.
उन का बेटा उन के हाथ से निकल चुका था. अक्षय
के पास सीमा की तरफ से 2-3 पत्र और आए. एक पत्र बलराम का भी आया. उन पत्रों को
बिना पढ़े ही उस ने फाड़ कर फेंक दिया था.
पीएच.डी. करने के बाद अक्षय शादी करवाने भारत
गया और एक बहुत ही सुंदर लड़की को पत्नी के रूप में पा कर अपना जीवन सफल समझने
लगा. उस के बाद उस ने शायद ही कभी बलराम और सीमा के बारे में सोचा हो. सीमा का तो
शायद खयाल कभी आया भी हो, पर उस की याद को अतीत के गहरे
गर्त में ही दफना देना उस ने उचित समझा था.
उस दिन दीपक ने अक्षय की पुरानी स्मृतियों को
झकझोर दिया था. प्रोफेसर अक्षय सारी रात सीमा के बारे में सोचते रहे कि उस बेचारी
ने उन का क्या बिगाड़ा था. बलराम के एहसान का उस ने कैसे बदला चुकाया था. इन्हीं
सब बातों में उलझे, प्रोफेसर को नींद ने आ घेरा.
ठक…ठक की आवाज के साथ विभाग की सचिव सिसिल 9
बजे प्रोफेसर के कमरे में ही आई तो उन की निंद्रा टूटी और वे अतीत से निकल कर
वर्तमान में आ गए. प्रोफेसर ने उस को दीपक के फ्लैट का फोन नंबर पता करने को कहा.
कुछ ही मिनटों बाद सिसिल ने उन्हें दीपक का फोन
नंबर ला कर दिया. प्रोफेसर ने दीपक को फोन मिलाया. सवेरे सवेरे प्रोफेसर का फोन पा
कर दीपक चौंक गया, ‘‘मैं तुम्हें इसलिए फोन कर रहा हूं कि तुम
यहां पर पीएच.डी. के लिए आर्थिक सहायता की चिंता मत करो. मैं इस विश्वविद्यालय में
ही भरसक कोशिश कर के तुम्हें सहायता दिलवा दूंगा.’’
दीपक को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा
था. वह धीरे से बोला, ‘‘धन्यवाद… बहुत बहुत धन्यवाद.’’
‘‘बरसों पहले तुम्हारे नानाजी ने मुझ पर बहुत
उपकार किया था. उस का बदला तो मैं इस जीवन में कभी नहीं चुका पाऊंगा पर उस उपकार
का बोझ भी इस संसार से नहीं ले जा पाऊंगा. तुम्हारी कुछ मदद कर के मेरा कुछ बोझ
हलका हो जाएगा,’’ कहने के बाद प्रोफेसर अक्षय ने फोन बंद कर
दिया.
दीपक कुछ देर तक रिसीवर थामे रहा. फिर पेन और
कागज निकाल कर अपनी मां को पत्र लिखने लगा.
आदरणीय माताजी,
आप से कभी सुना था कि इस संसार में महापुरुष भी
होते हैं परंतु मुझे विश्वास नहीं होता था.
लेकिन अब मुझे यकीन हो गया है कि दूसरों की
निस्वार्थ सहायता करने वाले महापुरुष अब भी इस दुनिया में मौजूद हैं. मेरे लिए प्रोफेसर
अक्षय एक ऐसे ही महापुरुष की तरह हैं. उन्होंने मुझे आर्थिक सहायता दिलवाने का
पूरापूरा विश्वास दिलाया है.